"Class 12 Political Science 2nd Book Chapter 07 Notes"
"जन आंदोलन का उदय"
चिपको आंदोलन :
- चिपको आंदोलन भारत के प्रमुख आंदोलन में से एक है, इस आंदोलन की शुरुआत उत्तर प्रदेश के गढ़वाल जिले के चामौली गांव से शुरू हुआ था। इस आंदोलन की शुरुआत 1973 में हुई और इसे भारत का प्रथम पर्यावरण आंदोलन भी कहा जाता है।
चिपको आंदोलन का स्वरूप :-
- उत्तराखंड के एक गांव चमोली के स्त्री पुरुष एकजुट हुए और उन्होंने जंगलों की व्यवसायिक कटाई का विरोध किया। गांव के लोगों ने विरोध को जताने के लिए एक नई तरकीब अपनाई इस तरकीब के अनुसार लोगों ने पेड़ों को अपनी बाहों में घेर लिया ताकि उन्हें काटने से बचाया जा सके। यह विरोध आगामी दिनों में भारत के पर्यावरण आंदोलन के रूप में परिणीति हुआ और चिपको आंदोलन के नाम से विश्व प्रसिद्ध हुआ यहा आंदोलन मुख्य रूप से पर्यावरणविद सुंदर बहुगुणा चंडी प्रसाद भट्ट और श्रीमती गौरा देवी के नेतृत्व में शुरू हुआ था परंतु बाद में इस आंदोलन में कई स्त्री और पुरुष शामिल हुए।
गांव वालों के विरोध करने का कारण :-
- गांव वालों ने वन विभाग से कहा कि खेतीवाड़ी के औजार बनाने के लिए हमें अंगू के पेड़ काटने की अनुमति दी जाए। परंतु वन विभाग ने अनुमति देने से इनकार कर दिया और इसके अलावा विभाग ने खेल सामग्री की एक वे निर्माता कंपनी को जमीन का यही टुकड़ा व्यवसायिक ते माल के लिए दे दिया जिससे गांव वालों में रोष पैदा हुआ और उन्होंने सरकार के इस कदम का विरोध किया और यह विरोध जल्द ही संपूर्ण उत्तराखंड में फैल गया और इसके बाद इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी और आर्थिक शोषण के कई बड़े सवाल उठने लगे
चिपको आंदोलन से जुड़े गांव वासियों की मुख्य मांगे :-
- गांव वासियों ने मांग की की जंगल की कटाई का कोई भी ठेका बाहरी व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए और स्थानीय लोगों का जल जंगल जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर कारगर नियंत्रण होना चाहिए।
- इसके अलावा इस गांव के लोगों ने यह मांग की कि सरकार लघु उद्योगों के लिए कम कीमत की सामग्री उपलब्ध कराए और इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी संतुलन को बिना नुकसान पहुंचाए यहां का विकास सुनिश्चित करें।
- आता है इसके तहत गांव वासियों ने भूमिहीन वन कर्मचारियों का आर्थिक मुद्दा उठाया और न्यूनतम मजदूरी की गारंटी की मांग की।
दल आधारित आंदोलन :-
- दल आधारित आंदोलन से तात्पर्य है कि जब कोई आंदोलन ऐसा बन जाए जिसमें राजनीतिक पार्टी शामिल हो जाए या उसका संचालन राजनीतिक रूप से होने लगे।
- आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार यहां किसानों तथा खेतिहर मजदूरों ने कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में अपना विरोध किया।
- बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में अस्तित्व में आने वाले स्वतंत्र
सामाजिक आंदोलन :-
- जाति प्रथा विरोधी आंदोलन
- किसान सभा आंदोलन
- मजदूर संगठनों के आंदोलन
किसान और मजदूरों के आंदोलन की विशेषता :-
- ऐसे आंदोलनों ने औपचारिक रूप से चुनावों में तो बाल नहीं लिया लेकिन राजनीतिक दलों से उनका नजदीकी रिश्ता कायम रहा।
- इन आंदोलनों मैं शामिल कई व्यक्ति और संगठन राजनीतिक दलों से सक्रिय रूप से जुड़े रहें।
- ऐसे जुड़ावो से दलगत राजनीति में सामाजिक शब्दों की बेहतर नुमाइंदगी सुनिश्चित हुई।
राजनीतिक दलों से स्वतंत्र आंदोलन :-
- 1970 और 80 के दशक में समाज के कई तबकों का राजनीतिक दलों के आचार व्यवहार से मोह-भंग हुआ।
- जनता पार्टी ने कुछ नहीं किया।
- सरकार की आर्थिक नीतियों की जनता को पसंद नहीं है।
- गरीबी असमानता दूर नहीं हो सकी।
- आर्थिक समृद्धि हुई पर इसका लाभ समाज में हर तबके को नहीं हुआ।
- ऐसे समूह दलगत राजनीति से दूर हुए और जनता को लामबद् करना शुरू किया।
- युवाओं ने गांव में जाकर गरीबों की सहायता की इन कार्यों की प्रकृति स्वयंसेवी थी इसलिए इन्हें स्वयंसेवी संगठन कहां गया।
स्वयंसेवी संगठन की विशेषता :-
- इन संगठनों ने खुद को दलगत राजनीति से दूर रखा।
- इन्होंने ना तो चुनाव लड़ा ना ही किसी राजनीतिक दल को समर्थन दिया।
- ऐसी संगठन राजनीति में विश्वास करते थे उसमें भागीदारी भी करना चाहते थे पर उन्होंने राजनीतिक दलों को नहीं चुना।
- इसीलिए इन आंदोलनों को राजनीतिक दलों से स्वतंत्र आंदोलन कहा गया है।
स्वयंसेवी संगठन की विचारधारा :-
- इन संगठनों ने माना कि स्थानीय मामलों पर स्थानीय नागरिकों की सक्रिय भागीदारी राजनीतिक दलों की अपेक्षा ज्यादा कारगर होगी।
- ऐसे संगठन और लोगों की मदद कर रहे है।
नोट :-
- नामदेव ढसाल महाराष्ट्र के प्रसिद्ध कवि थे और उन्होंने "सूरजमुखी आशीशों वाला फकीर" नामक कविता की रचना की थी।
- आजादी के बाद मुंबई, कोलकाता, कानपुर में मजदूर संगठनों का बड़ा जोड़ था।
- किसान और मजदूर के आंदोलनों का मुख्य जोर आर्थिक अन्याय और समानता के मसले पर था।
- BKU : भारतीय किसान यूनियन (1988)
दलित पैंथर्स
- शहर की झुग्गी बस्तियों मैं पल कर बड़े हुए दलितों में अपने हितों की दावेदारी इसी क्रम में 1972 में दलित युवाओं ने एक संगठन दलित पैंथर्स बनाया।
दलित पैंथर्स की मुख्य मांगे :-
- दलितों के हितों का कल्याण से संबंधित कानूनों का नीतियों को सही तरीके से लागू किया जाए।
- छुआछूत की समस्या, भेदभाव तथा हिंसा एवं जाति आधारित असमानता को खत्म करें।
- आरक्षण के कानून तथा सामाजिक न्याय की नीतियों का कारगर कियान्वयन किया जाए।
दलित पैंथर्स की मुख्य गतिविधियां :-
- दलितों पर बढ़ रहे अत्याचार के लड़ना दलित पैंथर्स के मुख्य गतिविधि थी।
- इन संगठनों ने अत्याचार के खिलाफ आंदोलन चलाएं।
- 1989 में सरकार ने एक व्यापक कानून बनाया इस कानून के अनुसार दलितों पर अत्याचार करने वाले लोगों को कठोर दंड दिया जाएं।
- इसका मुख्य एजेंडा जाति प्रथा को समाप्त करना था।
- गरीब किसान मजदूर दलित वंचित वर्गों का एक संगठन को बनाना था।
- दलित पैंथर संगठन टूट गया खत्म हो गया इसकी जगह "बामसेफ" ने ले ली।
भारतीय किसान यूनियन (BKU) :-
- 1988 के जनवरी में उत्तर प्रदेश के एक शहर मेरठ में लगभग 20000 किसान जमा हुए।
- बिजली की दर में बढ़ोतरी का विरोध कर रहे थे।
- किसानों ने जिला समाहर्ता के दफ्तर के बाहर तीन हफ्तों तक डेरा डाले रह बाद में इसकी मांग मान ली गई।
- ये एक अनुशासित धरना था इन्हें आपस के गांव से राशन पानी मिल रहा था।
- यह किसानों की शक्ति का बड़ा प्रदर्शन था भारतीय किसान यूनियन पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा के किसानों का संगठन था।
भारतीय किसान यूनियन की मुख्य मांगे :-
- गन्ने और गेहूं के सरकारी खरीद मूल्य में बढ़ोतरी की मांग की।
- कृषि उत्पादन के अंतर राज्य आवाजाही पर लगी पाबंदी हटाया जाए। समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति कराए।
- किसानों का बकाया कर्ज माफ करने की मांग की।
- किसानों के लिए पेंशन की मांग की।
नोट : अतः ऐसी मांगे देश में और भी किसान संगठन द्वारा उठाई गई जैसे- महाराष्ट्र : शेतकरी संगठन, कर्नाटक : रैयत संगठन
भारतीय किसान यूनियन आंदोलन की मुख्य विशेषता :-
- बीकेयू ने अपनी मांगों को मनवाने के लिए रैली, धरना प्रदर्शन और जेल भरो आंदोलन का सहारा लिया।
- इसमें लाखों किसान शामिल होते थे इसकी असली ताकत इसकी संख्या बल थी।
- इसने अपने सदस्यों को जोड़ कर रखा।
- 1990 के दशक के शुरुआती सालों तक भारतीय किसान यूनियन ने अपने को सभी राजनीतिक चलो से दूर रखा।
ताड़ी-विरोधी आंदोलन :-
- सन् 1992 में दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश राज्य में वहां की ग्रामीण महिलाओं ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया ।
- यह लड़ाई शराब माफिया और सरकार दोनों के खिलाफ था ये महिलाएं अपने आस-पास के क्षेत्रों में शराब की बिक्री पर रोक लगाने की मांग कर रही थी।
ताड़ी विरोधी आंदोलन की शुरुआत :-
- यह आंदोलन आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले के एक गांव दूबरगन्टा से प्रारंभ हुआ था।
- महिलाओं को साक्षर करने के लिए कार्यक्रम चलाया गया जिसमें महिलाओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया।
- कक्षाओं में महिलाएं घर के पुरुषों द्वारा देसी शराब, ताड़ी पीने की शिकायतें करती थी।
- यहां के लोगों को शराब की गंदी आदत लगने के कारण उनका मानसिक और शारीरिक विकास नहीं हो पा रहा था।
- ग्रामीण अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हो रही थी, शराबखोरी से कर्ज़ का बोझ बढ़ा, हिंसा बढ़ीं।
- पुरुष काम से गैरहाजिर रहने लगे और महिलाओं को इसमें ज्यादा दिक्कत हो रही थी।
- नेल्लोर जिले की महिलाएं ताड़ी की बिक्री के खिलाफ आगे आई और 5000 महिलाओं ने इस आंदोलन में भाग लिया।
- नेल्लोर जिले में ही ताड़ी की नीलामी 17 बार रद्द हुई, नेल्लोर जिले का आंदोलन धीरे-धीरे पूरे राज्य में फैल गया।
आंदोलन की कड़ियां :-
- नारा-ताड़ी की बिक्री बंद करो।
- राज्य सरकार को ताड़ी की बिक्री से काफी राजस्व प्राप्त होता था इसलिए सरकार इस पर प्रतिबंध नहीं लगा थी।
- महिलाओं ने अब घरेलू हिंसा के मुद्दों पर खुलकर चर्चा करना शुरू किया।
- घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, यौन उत्पीड़न जैसे मामलों पर चर्चा।
नर्मदा बचाओ आंदोलन :-
- देश में आजादी के बाद अपनाए गए आर्थिक विकास के मॉडल पर सवालिया निशान लगाते रहे है। चिपको आंदोलन में लोगों और सरकार का ध्यान पर्यावरण की ओर आकर्षित किया।
- दलित समुदाय की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां उन्हें जन संघर्ष की ओर ले गई वही ताड़ी-विरोधी आंदोलन ने विकास के नकारात्मक पहलुओं की ओर तारा किया।
नर्मदा आंदोलन
- बड़े बांध
30
- मझोले बांध
135
- छोटे बांध
300
नर्मदा घाटी परियोजना
- सरदार सरोवर परियोजना
- नर्मदा सागर परियोजना
सरदार सरोवर परियोजना :-
- सरदार सरोवर परियोजना जो कि गुजरात में एक बड़े बांध वाली अंतरराज्य बहुउद्देशीय परियोजना है। नर्मदा नदी पर तैयार की जा रही है जो कि भारत की पांचवी सबसे लंबी नदी है।
- यह नदी मुख्य रूप से मध्यप्रदेश के अमरकंटक के पहाड़ी श्रृंखला से निकलती है।
- नदी की कुल लंबाई 1312 किलोमीटर है मून मुख्य रूप से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में बहती है।
- नर्मदा घाटी परियोजना जिसमें तो महा परियोजनाएं शामिल है सरदार सरोवर परियोजना और नरमादा सागर परियोजना सबसे बड़ी एकल नदी घाटी परियोजना है जिसका उद्देश्य है विश्व की सबसे बड़ी मानव निर्मित झील बनाना।
सरदार सरोवर परियोजना के नकारात्मक प्रभाव :-
- इस परियोजना के परिणाम बहुत क्रोध पूर्व और भयप्रद है। इस जलाशय में 3100 हेक्टेयर भूमि डूब जाएगी जिसमें से 11000 हेक्टेयर वन के रूप में गोपनीय घोषित था।
- यह परियोजना 243 गांव में थे 19 गुजरात के 36 महाराष्ट्र के और 194 मध्य प्रदेश के और यह योजना मध्यप्रदेश में रहने वाले 1 लाख लोगों को विस्थापित की समस्या आई।
सरकार द्वारा सरदार सरोवर परियोजना को शुरू करने के कारण :-
- राज्य सरकार ने इस परियोजना को इसलिए शुरू किया क्योंकि गुजरात भारत में सबसे अधिक जल बुभुक्ष क्षेत्रों में से एक है और घरेलू व्यवसायिक, कृषक और औद्योगिक जरूरतों के लिए पानी की किल्लत है।
- गुजरात 1985-88 के बीच भयंकर सूखे के दौर से गुजर रहा था जिसने परियोजना को और मजबूती प्रदान की।
- इस बांध के बनने से तीनों राज्यों में बिजली, सिंचाई और यातायात के साधनों को मजबूत किया जा सकता है।
वाद-विवाद तथा संघर्ष :-
- यह आंदोलन विकास के मॉडल और औचित्य पर सवाल उठाता है।
- मुख्य दलील यह थी कि अब तक की विकास परियोजनाओं का हरकी का जायजा लिया जाए और यह देखा जाए कि इसमे हानि कितनी हुई है।
- आंदोलनकारियों ने इस बात पर ध्यान दिलाया कि विकास परियोजना पर निर्णय अन्य समुदायों से पूछ कर लिया जाए।
- जल, जंगल, जमीन पर अन्य समुदाय का नियंत्रण होना चाहिए।
- सरकार और न्यायपालिका यह मानते थे लोगों को पुनर्वास मिलना चाहिए।
- अदालत ने सरकार को बांध का काम आगे बढ़ाने की हिमायत की और साथ ही आदेश दिया कि प्रभावित लोगों को पुनर्वास की सुविधा दी जाए।
- ये आंदोलन दो दशकों तक चला।
NFF :-
- भारत मछुआरों की संख्या में विश्व में दूसरा स्थान है।
- सरकार ने मशीनीकृत मत्स्य आखेट के लिए बॉटम ट्राउलिंग जैसे प्रौद्योगिकी को अनुमति दे दी।
- इससे देसी मछुआरों के जीवन और आजीविका का संकट आ गया इसलिए मछुआरों ने मिलकर इसके विरुध NFF बनाया।
- सभी राज्यों के मछुआरों को लामबंद करने की तैयारी की गई।
- NFF ने 1997 में केंद्र सरकार से पहली कानूनी लड़ाई लड़ी और सफलता पाई।
- विदेशी कंपनी को मछली मारने के लाइसेंस के खिलाफ NFF ने सन् 2002 में एक हरताल की।
सूचना का अधिकार :-
- सूचना के अधिकार के तहत जनता को अधिकार है कि किसी भी विभाग से कोई भी प्रश्न कर सकता है तथा संबंधित विभाग इस प्रश्न का जवाब लिखित रूप में देता है।
- इस आंदोलन की शुरुआत 1990 में हुई और इसका नेतृत्व मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) ने किया।
- राजस्थान में काम कर रहे इस संगठन ने सरकार के सामने यह मांग रखी थी अकाल राहत कार्य और मजदूरों को दी जाने वाली मजदूरों के रिकॉर्ड का सार्वजनिक खुलासा करें।
- आंदोलन के दबाव में सरकार को राजस्थान पंचायती राज अधिनियम में संशोधन करना पड़ा।
- 1996 में MKSS ने दिल्ली में सूचना के अधिकार को लेकर राष्ट्रीय समिति बनाई।
- 2002 में सूचना की स्वतंत्रता के नाम से एक विधेयक पारित हुआ पर फैल रहा।
- 2004 में सूचना का अधिकार विधेयक सदन में रखा गया और 2005 में राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी।
जन आंदोलनों से मिले सबक :-
- आंदोलनों को समस्या के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।
- आंदोलनों का उद्देश्य दलीय राजनीति की खामियों को दूर करना था।
- सामाजिक आंदोलनों के द्वारा समाज की ऐसी समस्याओं को उजागर किया जाता है जिन पर सरकार का ध्यान नहीं होता।
- विभिन्न समूहों के लिए ये आंदोलन अपनी बात रखने का एक बेहतर तरीका है।
- इन आंदोलनों ने लोकतंत्र की रक्षा की है।
जन आंदोलन की आलोचना :-
- आंदोलन, हड़ताल, धरना, रैली सरकार के कामकाज पर बुरा असर पड़ता है।
- इस तरह की गतिविधियों से सरकार के निर्णय प्रक्रिया बाधित होती है और लोकतांत्रिक व्यवस्था भंग होती है।
जन आंदोलन के समर्थक :-
- आंदोलन का मतलब केवल धरना प्रदर्शन या सामूहिक कार्यवाही नहीं होता इसके अंतर्गत समस्या से पीड़ित लोग धीरे-धीरे एकजुट होते हैं।
- सामान अपेक्षाओं के साथ एक सी मांग उठानी जरूरी है।
- आंदोलनों का काम लोगों को जागरूक बनाना है।
- भारत में आंदोलनों में जनता को जागरूक किया है तथा लोकतंत्र को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
🙏🙏🙏